यदि आप किसी को पुरस्कार, प्रशंसा और मान देना चाहें तो एक तरीका है, आप
उसे अपना सान्निध्य दें। ‘निकटता’ देना भी एक पुरस्कार है। ज्येष्ठ और
श्रेष्ठ लोग जब किसी को अपना सान्निध्य देते हैं तो एक तरह से उसे
पुरस्कृत ही करते हैं और पुरस्कृत व्यक्ति ‘सान्निध्य-ऊर्जा’ से भर जाता
है।
इसे अंग्रेजी में एनर्जी ऑफ प्रॉक्सिमिटी कहा गया है। श्री हनुमानचालीसा
की बारहवीं चौपाई में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है-रघुपति कीन्ही बहुत
बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।। हे हनुमानजी! आपकी प्रशंसा स्वयं
श्रीराम ने की है, उन्होंने आपको भरत के समान ही प्रिय बताया है।
श्रीराम ने हनुमानजी को मान देते हुए उनकी तुलना अपने प्रियतम भाई भरत से
की है। स्नेह और सम्मान देने की यह श्रीराम की मौलिक शैली है। किष्किंधा
कांड में जब हनुमानजी से पहली बार श्रीराम मिले थे, तब उन्होंने हनुमानजी
को देखकर कहा था- ‘तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना..’ वहां लक्ष्मण से दुगुना
कहा था और यहां कह रहे हैं भरत के समान प्रिय हो। यह उच्चतम सम्मान देने
की भावना है। संत जब किसी की प्रशंसा करते हैं तो उसके सौभाग्य में
वृद्धि हो जाती है।
श्रीराम, हनुमानजी की तुलना भरत और लक्ष्मण से करके उन्हें सौभाग्यशाली
बना रहे हैं। नेपोलियन का कथन था- मेरे सेनापति बहादुर हों यह तो अच्छा
है ही, उससे ज्यादा अच्छा यह होगा कि वे भाग्यशाली जरूर हों। यह सत्य है
कि अपने अधीनस्थ का सौभाग्य भी सफलता में सहायक और दुर्भाग्य भी बाधक
होता है।